उत्तराखंडगढ़वालदेहरादून

संस्कृत महाविद्यालयों पर राज्य सरकार ने लगाई गुलामी की मोहर।

देहरादून : स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए गुप्त मंच देने वाले ये संस्कृत महाविद्यालयों ने स्वतंत्रता के लिए अनेक सराहनीय कार्य किये। जिन पर अंग्रेजों को भी कभी शक नहीं हुआ। और अंग्रेज भी इनको अनुदान देते रहे। इन संस्कृत विद्यालयों/महाविद्यालयों ने शिक्षा के क्षेत्र में देश के लिए सबसे बडा योगदान दिया। इनकी महत्ता और त्याग को समझ कर आजादी के बाद की सरकारे भी चाहें किसी की भी रही हो इन्हें बदस्तूर अनुदान देते रहे।

देश की सांस्कृतिक विरासत के वाहक इन महाविद्यालयों को हर सरकार ने आदर की दृष्टि से देखा। कोई गैर जिम्मेदाराना कदम नहीं उठाया बल्कि बामपंथ विचारधारा के अफसरों ने सरकारों की मंशाओं पर पानी फेरते रहे हमेशा इनका अहित ही चाहा जो आज फलीभूल हुआ।परिणाम स्वरूप जो वेतनमान 80 के दशक में था ऒ आज भी है । न जाने कितने वर्षों से ये शिक्षक सरकार से गुहार लगा रहें हैं कि जब आपने हमें महाविद्यालयों की अर्हता पर नियुक्त किया है उस स्तर का ही कार्य करवा रहे हैं तो हमें भी सेवालाभ दीजिये हमने क्या बिगाड़ा तो वामपंथी ब्यूरोक्रेसी इस कदर हावी है कि दशकों से चल रही इन संस्थाओं को महाविद्यालय मानने से ही इनकार कर दिया ।

इन संस्कृत विद्यालय/महाविद्यालयों में नियुक्त शिक्षकों ने आज तक सबसे कम वेतनमान में काम किया। क्योंकि ये सबसे अधिक राष्ट्र प्रेमी होते है ये पूरे राष्ट्र को अपना परिवार मानते है इसलिए खुद कम खाकर औरों की परवाह करते है। इनके लिए मेजर जनरल भुवन चन्द्र खण्डूडी ने अपने मुख्यमंत्री काल में थोडा सहयोग देकर माध्यमिक की भांति वेतन करवाया। जिससे संस्कृत अध्यापकों को भी सरकार से अच्छी अनुभूति प्राप्त हुई।

फिर भी इन संस्कृत महाविद्यालयों के प्राध्यापकों ने सिर्फ माध्यमिक का वेतन ग्रहण करके पिछले १००से१५० सालों तक राष्ट्र के प्रति समर्पित होकर उच्चशिक्षा को आज तक मुफ्त पढाया है और देश के लिए हजारों करोड बचाये है, कभी कोई अनैतिक मांग नही की है, न सरकार के विरुद्ध कोई आन्दोलन किया है। इनके पढ़ाये हजारों छात्र आज देश विदेश में विभिन्न क्षेत्रों में देश का नाम कर रहे हैं लेकिन दुर्भाग्यवश जब उनको मालूम हुआ होगा कि जिन संस्थाओं से हमने डिग्री उपाधियां ली है उनको तो आज अवनत कर दिया है तो क्या बित्तेगी इन पर जरा विचार करें ।

आज पुनः जब राष्ट्र की सही और अनुकुल स्थिति देखकर इन्होंने भी जब उच्चशिक्षा का वेतनमान सरकार से मांगा तो सरकार ने इनकी तपस्या का ये फल दिया कि प्रदेश में संचालित 74 महाविद्यालयों का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया।

अब इनमें पढने वाले छात्रों का क्या होगा? इन महाविद्यालयों स्थायी रूप कार्यरत ऒ शिक्षक जिनके पास निचले स्तर की अर्हता ही नहीं और जिस स्तर की उनके पास अर्हता और नियुक्ति उस स्तर का उन्हें मान ही नही रहे तो क्या होगा उन आचार्यों का?

परन्तु राष्ट्र को समर्पित ये शिक्षक क्या सरकार के इस फैसले को मानेगे? न भूतो न भविष्यति।

फिर सरकार ने अपनी किरकिरी क्यो की होगी? क्या लालच रहा होगा कि जिसकी पूर्ति न होने से महाविद्यालय को बंद करने का फरमान संस्कृत सचिव को देना पडा। पर इस्लामिक स्टेडी से बने आईएएस को इतना भी ज्ञान नही कि वो आदेश निकालने से पहले नैसर्गिक न्याय का अवलोकन करता। इससे अच्छा निर्णय तो एक भेड पालक भी कर सकता था फिर आईएएस करने का क्या औचित्य। आज संविधान भी खुद पर लज्जित होगा की देश की बागडोर कैसे हाथो में है।

सरकार के पास गाड गदेरों में पैसे बहाने के लिए है पर देश के छात्रों को शिक्षा देने वाले शिक्षकों के लिए वेतन नहीं है , ये सरकार का दिवालिया पन नही तो क्या?

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