देहरादून : आज 17 अक्टूबर 023 हमारे प्रदेश के एक जुझारू, समाजसेवी, जन नायक की “जयानंद भारती” की जयन्ती है ।न्याय, इंसानियत और शोषणमुक्त समाज के लिए लड़ने वाले भारती जी के संघर्ष एवं बलिदान के सन्दर्भ में वर्तमान समाज को जानना आवश्यक है जयानंद भारती ऐसे नायकों में से एक है।
पौड़ी के जयानंद भारती (1881 – 1952) अंग्रेज़ों और जातिवादी शोषकों के खिलाफ अनवरत संघर्ष करते रहे , गढ़वाल में जाति आधारित भेदभाव और अत्याचारों के खिलाफ उन्होंने लगभग बीस साल तक “डोला-पालकी आंदोलन” का नेतृत्व किया परिणामस्वरूप न्यायालय को उच्च जाति के लोगों द्वारा अनुसूचित जातियोंं के लोगों के साथ किये जा रहे भेदभाव पर रोक लगानी पड़ी । साथ ही जयानंद भारती स्वतंत्रता के संघर्ष में वे अनेकों बार जेल गए। स्वाधीनता संग्रामी, डोला-पालकी और आर्यसमाज आन्दोलन के अग्रणी ‘जयानंद भारती’ का जन्म ग्राम- अरकंडाई, पट्टी- साबली (बीरोंखाल) पौड़ी (गढ़वाल) में 17 अक्टूबर, 1881 में हुआ था. पिता छविलाल और माता रैबली देवी का परिवार कृषि और पशुपालन के अलावा जागरी के काम से जुड़ा था. जयानन्द भी किशोरावस्था तक इन्हीं पैतृक कार्यों को किया करते थे. बाद में बेहतर रोजगार के लिए नैनीताल, मसूरी, हरिद्वार और देहरादून पलायन कर गये ।बचपन से ही अंधविश्वासों व कुरीतियों कै वै शक्त खिलाफ थे ,वै आर्य समाज से प्रभावित होकर सन् 1911 में आर्य समाजी विचारधारा से जुड़े तथा इसके प्रचारक बन गए. सन् 1914 से 1920 तक वे अंग्रेजी सैना में रहते हुए फ्रांस और जर्मन गये । सेवानिवृत होने के बाद वे आर्यसमाज के पूर्णकालिक प्रचारक के रूप में कार्य करते हुए उत्तराखंड में सामाजिक जागृति के लिए कार्य करने लगे. वैचारिक दासता और सामाजिक कुरीतियों से जकड़े हमारे पर्वतीय समाज से उन्हें अनेकों बार अपमानित होना पडा़ किन्तु वै निराश नहीं हुऐ ,अपनी दृढ़ संकल्पता के चलते वै मैदान में डटे रहे ।
गढ़वाल में सन् 1923 से सामाजिक समानता के लिए तकरीबन 20 वर्षों तक डोला-पालकी आंदोलन का नेतृत्व उन्होंने किया । उन दिनों शिल्पकार परिवार की बारात में डोला-पालकी का प्रयोग करना वर्जित था. जियानन्द भारतीजी ने जब इस कुप्रथा का सार्वजनिक विरोध किया तो सवर्ण समाज ने उन्हें तरह तरह से प्रताड़ित किया ।
जयानन्द भारती ने कुप्रथा के बारै मै महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय सहित अनेक बड़े नेताओ को बताई , उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सर्वणों की इस ज्यादती के खिलाफ मुकदमा दायर किया. निर्णय भारतीय जी के पक्ष में आने के बाद सरकारी कानून के माध्यम से शिल्पकारों के लिए वर्जित डोला-पालकी प्रथा का अंत हुआ था ।
देश की स्वाधीनता लड़ाई में जयानन्द भारतीय की सक्रियता हमेशा बनी रही । 28 अगस्त, 1930 को राजकीय विद्यालय, जहरीखाल में तिरंगा झंडा फहराकर उन्होने आजादी के लिए विद्यार्थियों को प्रेरित किया था । तीन माह के कारावास से रिहा होकर वे फिर सै इन गतिविधियों में शामिल होते रहे ।1 फरवरी, 1932 को दुगड्डा में प्रतिबन्ध के बावजूद जनसभा करने के जुर्म में 6 माह का कारावास हुआ । कोटद्वार में 11 अक्टूबर, 1940 को सैनिक टुकड़ी के सम्मुख सत्याग्रह करने के आरोप में उन्हें चार माह कारावास की सजा हुई । भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लेने के कारण 22 अप्रैल, 1943 को भारतीय जी को दो वर्ष का कठोर कारावास हुआ तथा बरेली जेल में रहते उन्होंने सजा कै काफी अध्ययन किया ।
देश की आजादी के बाद जयानन्द भारतीय नै अपनै को पूर्णतः समाजसेवा के कार्यों कै लिये समर्पित किया ।उनके संघर्षों कै परिणामस्वरूप अनेक स्थानों में धर्मशाला, अस्पताल और विद्यालयों की स्थापना हुई । सामाजिक सक्रियता और अनियमित जीवनचर्या के कारण वे अपने स्वास्थ पर समुचित ध्यान नहीं दे पाये,जीवन के अतिंम समय पैतृक गांव अरकंड़ाई में व्यतित रहने का फैसला लिया । अपनी जन्म स्थली में ही 9 सितम्बर, 1952 को 71 वर्ष की आयु में इस दुनिया को अलविदा कहा !
उत्तराखंडी समाज के लिए जयानन्द ‘भारतीय’ जी का योगदान एक समाज सुधारक, आर्यसमाज के प्रचारक, स्वतन्त्रता संग्रामी और सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले जुझारू व्यक्तित्व के रूप में हमेशा याद किया जाता रहेगा !उत्तराखंड के राजनेताओं, सरकारों यहां तक कि आमजन ने जयानन्द भारतीय जैसे अनेकों महान विभूतियों और उनके अमूल्य सामाजिक योगदान को भुला दिया है ,जो कि किसी भी सभ्य समाज कै लिये शुभ संकेत नहीं ,आज उत्तराखंडी जिस मुकाम पर हैं ,उसके लिये जयानन्द भारतीय ,बीर चन्द्र सिंह गढवाली ,शहीद श्रीदेव सुमन ,नागेन्द्र सकलानी ,भोलूभरदारी ,गौरादेवी ,तिलू रोतैली ,शहीद केसरीचन्द,देश की सीमाओं पर शहीद हुऐ सैनिकों ,राज्य आन्दोलन में शहीद हुऐ आन्दोलन कारियों तथा जनता लडाई में अपने सम्पूर्ण जीवन लगा चुके लोगों का योगदान को नहीं भुलाया जा सकता ।
जयानन्द भारतीय की 143 जयंती पर सादर नमन।