राष्ट्रीय

लाभ लेने के लिए की गई कवायद से मन के लड्ढू कहीं मन में ही न फूट जाए।

बांटने पर बंटाधर न हो जायेः जात न पूछो साधु की।

देहरादून। सैक्यूलर होने का ढांग और समाज को जातियों में बांटकर राज करने का सपना, फिलहाल तो इस कवायद के प्रेणताओं का जश्न मनाने का दिन है। क्योंकि उनको लगता है कि हिन्दू समाज को जातियों में उलझा कर राजनीतिक लाभ कमाया जा सकता है। कमोबेश दशकों से ऐसा कर सत्ता का सुख भोगने में ऐसे लोग कामयाब भी रहें है। लेकिन समय के साथ लोगों की सोच में बदलाव आ रहा है।

भले ही कुछ राजनीतिज्ञ अपने भले के लिए कितना ही कीचड जमा दें लेकिन जागरूक लोग इस बटवारे के प्रपंच को जान गए है। वास्तव में देश की तुष्टिकरण की राजनीति का विश्वास इसी जातिगत बंटवारे पर टिका हुआ है। क्योंकि देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय बहत्तर फिरकों में होने के बाद भी एक रहता है। जबकि हिन्दू समाज जाितगत दलदल से बाहर नहीं आ पाता। इसका खामियाजा उन्होंने भोगा भी है। बहुसंख्यक होने के बाद भी केरल जैसे राज्य में सरकार का निर्धारण मुस्लिम करते है।

अकेले केरल ही नहीं, देश के कई हिस्सों में इसी तरह बहुसंख्यकों पर अल्पसंख्यक राज कर रहें है। इस बात को हम भी बार बार कहते रहें है कि भारत ही एकमात्र ऐसा मुल्क है जहां पर अल्पसंख्यक ही बहुसंख्यकों का उत्पीड़न करते रहें है। लेंकिन जरिया तो यही राजनीतिक है जो अपनी कुर्सी को बरकरार रखने के लिए समाज का, देश का करार खत्म किए देते है। हालिया दिनों में बिहार में जातिगत जनगणना करवाने और उसके परिणाम को जारी करने के पीछे भी इरादा नेक नहीं लगता। कहीं न कहीं इसके पीछे राजनीति ही दिखाई देती है।

हालांकि बिहार की सरकार ने ऐसा राजनीतिक लाभ लेने के लिए किया हो लेकिन जानकार शंका जताते है। उनका मानना है कि पासा उल्टा भी पड़ सकता है। इस लाभ लेने की कवायद से मन के लड्ढू मन में ही फूट सकते है। सच ही तो कहा गया है कि साधु की जाति नहीं पूछी जाती। ऐसा करने से बंटाधर भी हो सकता है। जबकि फिलहाल हालात यह है कि सफलता की आशंका से महत्वाकांक्षी विपक्ष उत्साहित है। वहीं भारतीय जनता पार्टी के चेहरे में शिकन दिख रही है। भाजपा के साथ अच्छा यह है कि उसने चुनौती को हल्के में नहीं लिया है। इसलिए पूरे मनोयोग से लड़ने का इरादा साफ कर दिया है।

हालांकि यह वक्त बतायेगा कि अगले लोकसभा चुनावों में किसको जातिगत जनगणना का लाभ होता है और कौन घाटा खाता है। लेकिन अब भी जानकार कह रहें है कि साधु की जाति नहीं पूछनी चाहिये। कहीं ऐसा न हो कि जाति जाति करते करते विपक्ष अपना बंटाधर न करवा बैठे। अपने लाभ के लिए किसी भी हद तक जाने वाले भूल गए कि वीपी सिंह इसी प्रपंच के कारण हीरो से जीरो होकर रह गए थे। आज उनका कोई नामलेवा तक नहीं है।

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